भाषा: समृद्धि का माध्यम या बंटवारे का कारण?
भारत, जो विविधताओं का संगम है, अपनी भाषाओं की बहुलता के लिए जाना जाता है। यहां हर राज्य की अपनी भाषा, बोली और संस्कृति है। लेकिन हाल के वर्षों में भाषा का मुद्दा सामाजिक समरसता से ज्यादा राजनीति का हथियार बनता जा रहा है। कई राज्यों में यह देखने को मिल रहा है कि स्थानीय राजनीतिक पार्टियां बाहरी लोगों को धमका रही हैं, उनके खिलाफ हिंसा कर रही हैं और उन्हें उस राज्य से बाहर करने की कोशिश कर रही हैं। यह सब एक ही सवाल को जन्म देता है—क्या हम सच में अपनी भाषा को समृद्ध कर रहे हैं, या फिर भाषा ही इस लड़ाई में हार रही है?
भाषा: पहचान या संकीर्ण सोच?
भाषा किसी भी समाज की पहचान होती है, लेकिन जब इसे कट्टरता और असहिष्णुता के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता है, तो यह अपनी असली शक्ति खो देती है। भाषा का विकास तभी संभव है जब वह समावेशी हो, न कि विभाजनकारी। हिंदी, मराठी, तमिल, बंगाली या कोई भी भाषा तभी समृद्ध होगी जब वह अन्य भाषाओं से सीखने और उन्हें अपनाने की क्षमता रखेगी।
अगर हम इतिहास देखें तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी से अनेक शब्द लेकर विकसित हुई हैं। यही कारण है कि हमारी भाषाएं समय के साथ समृद्ध हुईं। लेकिन आज जब किसी एक भाषा को बचाने के नाम पर दूसरी भाषा बोलने वालों को प्रताड़ित किया जाता है, तो क्या वह भाषा सच में मजबूत हो रही है, या फिर अपनी स्वीकार्यता खो रही है?
मुद्दों पर राजनीति क्यों हावी हो जाती है?
यह एक अजीब विडंबना है कि जब भी समाज में कोई बड़ा मुद्दा उठता है, तो उसमें सबसे अधिक दखल वे लोग देते हैं जिनकी उस विषय पर सबसे कम समझ होती है। भाषा जैसे गूढ़ विषय पर भी यही देखने को मिलता है।
- जो लोग भाषा के इतिहास, उसकी संरचना और विकास को समझते हैं, वे आमतौर पर शोध में लगे रहते हैं। उनकी जानकारी किताबों, शोधपत्रों और गंभीर लेखों तक सीमित रहती है। वे कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो तथ्यों के साथ बोलते हैं।
- दूसरी ओर, जिनकी जानकारी सतही होती है, वे हर बड़े मुद्दे पर सबसे अधिक मुखर होते हैं। उन्हें भाषा का वास्तविक महत्व समझ नहीं आता, लेकिन वे समाज को गुमराह करने में सबसे आगे होते हैं।
- राजनीतिक लोग इस स्थिति का फायदा उठाते हैं। वे जानते हैं कि जनता की भावनाओं को भड़काकर सत्ता हासिल की जा सकती है। इसलिए वे भाषा जैसे सांस्कृतिक मुद्दे को भी संघर्ष और टकराव का मुद्दा बना देते हैं।
फैसले लेने वाले क्या सच में योग्य हैं?
आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे समाज में जो लोग नीतियां और निर्णय लेते हैं, क्या वे सच में योग्य हैं? क्या वे किसी भी मुद्दे को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता रखते हैं?
दुर्भाग्यवश, ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है।
- भाषा जैसे गंभीर मुद्दे पर भी वे लोग निर्णय ले रहे हैं जो इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को नहीं समझते।
- उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि भाषाएं कैसे विकसित होती हैं, कैसे एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं, और कैसे इनका प्रसार समाज को मजबूत बनाता है।
- वे भाषा को केवल क्षेत्रवाद और राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखते हैं और उसी तरह इसे जनता के सामने परोसते हैं।
इसका नतीजा यह होता है कि भाषा, जो जोड़ने का काम करती है, अब समाज में फूट डालने का माध्यम बन रही है।
भाषा को थोपने के बजाय सीखने को प्रोत्साहित करें
अगर हमें सच में अपनी भाषा को बचाना और समृद्ध करना है, तो हमें इसे थोपने के बजाय लोगों को नई भाषाएं सीखने के लिए प्रेरित करना होगा।
क्या होना चाहिए?
- हर राज्य के लोगों को उनकी मातृभाषा का ज्ञान जरूर दिया जाए।
- अंग्रेजी के अलावा, उन्हें अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए प्रेरित किया जाए।
- कौन-सी भाषा सीखनी है, यह पूरी तरह व्यक्ति की पसंद पर छोड़ा जाए।
क्यों जरूरी है?
- जब कोई व्यक्ति एक से अधिक भाषा सीखता है, तो उसकी सोचने और समझने की क्षमता बढ़ती है।
- भाषाओं के बीच संवाद बढ़ता है, जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान मजबूत होता है।
- यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है, क्योंकि लोग अलग-अलग राज्यों के लोगों के साथ बेहतर संवाद कर सकते हैं।
समाज को कौन दिशा देता है?
आज एक बड़ा सवाल यह भी है कि समाज की दिशा कौन तय कर रहा है? क्या वे लोग जो गहरे अध्ययन और शोध के बाद अपनी बात रखते हैं, या वे जो बिना किसी ठोस ज्ञान के सिर्फ भावनाएं भड़काने में माहिर हैं?
समस्या यह है कि आज के दौर में तथ्यों की तुलना में भावनाएं ज्यादा तेजी से फैलती हैं। सोशल मीडिया और टीवी डिबेट्स में वही लोग सबसे ज्यादा छाए रहते हैं जिनके पास ठोस तर्कों की कमी होती है लेकिन जो उत्तेजक बयान दे सकते हैं। जबकि जो लोग किसी विषय पर गहरी समझ रखते हैं, वे अक्सर इस कोलाहल में दबकर रह जाते हैं।
यही कारण है कि भाषा जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी सही विशेषज्ञों की जगह वे लोग चर्चा में आ जाते हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य समाज को विभाजित करना है।
निष्कर्ष
भाषा का उद्देश्य लोगों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं। अगर भाषा को संकीर्ण दायरे में बांधा जाएगा, तो वह कमजोर होगी। हमें भाषा का उपयोग सशक्तिकरण के लिए करना चाहिए, न कि बहिष्कार के लिए।
यह समय आत्ममंथन का है—हमारी भाषाएं क्या सच में मजबूत हो रही हैं, या हम उन्हें अपने संकीर्ण स्वार्थ के कारण कमजोर कर रहे हैं? हमें यह तय करना होगा कि भाषा हमारी शक्ति बनेगी या बंटवारे का माध्यम।
और सबसे महत्वपूर्ण बात—क्या हमें समाज के गंभीर मुद्दों की दिशा तय करने का हक सिर्फ उन्हीं लोगों को देना चाहिए जो बिना किसी गहरी समझ के सिर्फ भावनाएं भड़का सकते हैं? अगर हमने सही रास्ता नहीं चुना, तो अंततः भाषा ही इस लड़ाई में हार जाएगी, और साथ ही हमारी सामाजिक एकता भी।
समाधान स्पष्ट है—भाषा को राजनीति का औजार बनाने के बजाय उसे समृद्धि और आपसी समझ का माध्यम बनाना होगा।