Wednesday, April 23, 2025

धर्म: सीमित मात्रा में लेने योग्य नशा

“धर्म का नशा: अब भी न जागे तो विनाश निश्चित है”

कल पहलगाम की वादियाँ फिर खून से लाल हो गईं।

फिर मासूमों की चीखों ने पहाड़ों से टकराकर हमें चुप कर दिया।

एक और आतंकी हमला… कुछ और बेगुनाह शहीद… और हम फिर वही पुराना खेल खेलते रहे —

कड़ी निंदा, जांच के आदेश, मोमबत्ती जलाओ, और अगली खबर पर बढ़ जाओ।

असल में समस्या कहीं और है।

धर्म — जिसे प्रेम, करुणा और मानवता का रास्ता होना चाहिए था,

आज भीड़ का हथियार बन चुका है।

धर्म भी शराब जैसा है।

सीमित मात्रा में लो तो आत्मा को सुख देता है।

पर जब नशा चढ़ जाता है, तो इंसान से इंसानियत छीन लेता है।

आज यही हो रहा है —

मजहब के नशे में चूर होकर कोई हिंदू बनकर भीड़ में लिंचिंग कर रहा है,

तो कोई मुसलमान बनकर मासूम पर गोली चला रहा है।

नाम अलग हैं, जुर्म एक है — इंसानियत का कत्ल।

और सवाल उठता है —

जिन्होंने धर्म का ठेका ले रखा है, जो खुद को ‘ज्ञानी’ समझते हैं, वे अब क्या कहेंगे?

क्या उन्होंने सच में अपने धर्मग्रंथों को पढ़ा भी है?

किस वेद, किस कुरान, किस बाइबिल, किस गुरु ग्रंथ साहिब में लिखा है कि मजहब पूछकर किसी को मार डालो?

जब धर्म अपने निजी साधना से निकलकर गली, चौराहे और भीड़ के नारों में उतर आता है,

तो वह साधु नहीं, राक्षस पैदा करता है।

जब धर्म राजनीति का हथियार बनता है,

तो वह शांति नहीं, सिर्फ तबाही लाता है।

अगर अब भी इस नशे पर लगाम नहीं लगी,

अगर धर्म को अब भी घर की चौखट के भीतर नहीं रोका गया,

तो यकीन मानिए —

दुनिया का विनाश अब बहुत दूर नहीं है।

ना कोई मंदिर बचेगा, ना मस्जिद, ना चर्च, ना गुरुद्वारा —

सिर्फ राख बचेगी, और उस राख पर लिखा होगा:

“यहाँ कभी इंसान रहा करते थे।”

आज वक्त है धर्म को वहाँ वापस रखने का जहाँ उसका स्थान है —

अपने दिल की गहराई में।

अपने आचरण में।

अपने निजी जीवन में।

ना कि सड़कों पर, ना भीड़ के नारों में।

वरना पहलगाम हो या पलवल, मालेगांव हो या गोधरा —

हर जगह मौत ही मौत होगी, और इंसानियत हमेशा के लिए खो जाएगी।

गौरव पाण्डेय

Monday, April 14, 2025

क्या कहीं चुनाव आने वाले हैं?

पिछले कुछ दिनों से देश की हवा में एक अजीब सी गर्माहट महसूस हो रही है। टीवी चैनलों पर सुबह उठते ही राष्ट्र नहीं, एक विशेष राज्य खतरे में नजर आता है। सोशल मीडिया पर हर कोई या तो देशभक्ति साबित कर रहा है या दूसरों की देशभक्ति पर सवाल उठा रहा है।

अचानक से कुछ पुराने चेहरे फिर से स्क्रीन पर दिखने लगे हैं—जिन्हें महीने भर पहले तक कोई पूछ भी नहीं रहा था। और जैसे ही उस पूरब के राज्य में कुछ घटनाएं हुईं, तो लगा जैसे पूरा देश वहीं सिमट गया हो। वहां की हर खबर अब राष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुकी है।

अचानक से फिर वही पुरानी लाइनें—“बहुसंख्यक खतरे में है”, “हमारे संस्कारों पर चोट हो रही है”, “बहुत हो गया सहनशीलता का नाटक”।

अब तो मुझ जैसा एक सीधा-सादा, गैर-राजनीतिक आदमी भी सोचने पर मजबूर है—क्या कहीं चुनाव आने वाले हैं?

क्योंकि जब भी बहस का केंद्र मुद्दों से हटकर भावनाओं पर चला जाए, जब किसी एक राज्य की घटनाओं को पूरे देश का प्रतिबिंब बताया जाने लगे, और जब डर को हथियार बना लिया जाए—तो समझ लीजिए कि कहीं न कहीं वोटों की गिनती शुरू हो चुकी है।

सवाल ये नहीं कि किसकी सरकार बनेगी, सवाल ये है कि जनता हर बार क्या खोएगी।

Thursday, April 3, 2025

भाषा: समृद्धि का माध्यम या बंटवारे का कारण?

भाषा: समृद्धि का माध्यम या बंटवारे का कारण?

भारत, जो विविधताओं का संगम है, अपनी भाषाओं की बहुलता के लिए जाना जाता है। यहां हर राज्य की अपनी भाषा, बोली और संस्कृति है। लेकिन हाल के वर्षों में भाषा का मुद्दा सामाजिक समरसता से ज्यादा राजनीति का हथियार बनता जा रहा है। कई राज्यों में यह देखने को मिल रहा है कि स्थानीय राजनीतिक पार्टियां बाहरी लोगों को धमका रही हैं, उनके खिलाफ हिंसा कर रही हैं और उन्हें उस राज्य से बाहर करने की कोशिश कर रही हैं। यह सब एक ही सवाल को जन्म देता है—क्या हम सच में अपनी भाषा को समृद्ध कर रहे हैं, या फिर भाषा ही इस लड़ाई में हार रही है?

भाषा: पहचान या संकीर्ण सोच?

भाषा किसी भी समाज की पहचान होती है, लेकिन जब इसे कट्टरता और असहिष्णुता के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता है, तो यह अपनी असली शक्ति खो देती है। भाषा का विकास तभी संभव है जब वह समावेशी हो, न कि विभाजनकारी। हिंदी, मराठी, तमिल, बंगाली या कोई भी भाषा तभी समृद्ध होगी जब वह अन्य भाषाओं से सीखने और उन्हें अपनाने की क्षमता रखेगी।

अगर हम इतिहास देखें तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी से अनेक शब्द लेकर विकसित हुई हैं। यही कारण है कि हमारी भाषाएं समय के साथ समृद्ध हुईं। लेकिन आज जब किसी एक भाषा को बचाने के नाम पर दूसरी भाषा बोलने वालों को प्रताड़ित किया जाता है, तो क्या वह भाषा सच में मजबूत हो रही है, या फिर अपनी स्वीकार्यता खो रही है?

मुद्दों पर राजनीति क्यों हावी हो जाती है?

यह एक अजीब विडंबना है कि जब भी समाज में कोई बड़ा मुद्दा उठता है, तो उसमें सबसे अधिक दखल वे लोग देते हैं जिनकी उस विषय पर सबसे कम समझ होती है। भाषा जैसे गूढ़ विषय पर भी यही देखने को मिलता है।

  1. जो लोग भाषा के इतिहास, उसकी संरचना और विकास को समझते हैं, वे आमतौर पर शोध में लगे रहते हैं। उनकी जानकारी किताबों, शोधपत्रों और गंभीर लेखों तक सीमित रहती है। वे कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो तथ्यों के साथ बोलते हैं।
  2. दूसरी ओर, जिनकी जानकारी सतही होती है, वे हर बड़े मुद्दे पर सबसे अधिक मुखर होते हैं। उन्हें भाषा का वास्तविक महत्व समझ नहीं आता, लेकिन वे समाज को गुमराह करने में सबसे आगे होते हैं।
  3. राजनीतिक लोग इस स्थिति का फायदा उठाते हैं। वे जानते हैं कि जनता की भावनाओं को भड़काकर सत्ता हासिल की जा सकती है। इसलिए वे भाषा जैसे सांस्कृतिक मुद्दे को भी संघर्ष और टकराव का मुद्दा बना देते हैं।

फैसले लेने वाले क्या सच में योग्य हैं?

आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे समाज में जो लोग नीतियां और निर्णय लेते हैं, क्या वे सच में योग्य हैं? क्या वे किसी भी मुद्दे को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता रखते हैं?

दुर्भाग्यवश, ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है।

  1. भाषा जैसे गंभीर मुद्दे पर भी वे लोग निर्णय ले रहे हैं जो इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को नहीं समझते।
  2. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि भाषाएं कैसे विकसित होती हैं, कैसे एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं, और कैसे इनका प्रसार समाज को मजबूत बनाता है।
  3. वे भाषा को केवल क्षेत्रवाद और राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखते हैं और उसी तरह इसे जनता के सामने परोसते हैं।

इसका नतीजा यह होता है कि भाषा, जो जोड़ने का काम करती है, अब समाज में फूट डालने का माध्यम बन रही है।

भाषा को थोपने के बजाय सीखने को प्रोत्साहित करें

अगर हमें सच में अपनी भाषा को बचाना और समृद्ध करना है, तो हमें इसे थोपने के बजाय लोगों को नई भाषाएं सीखने के लिए प्रेरित करना होगा।

क्या होना चाहिए?

  1. हर राज्य के लोगों को उनकी मातृभाषा का ज्ञान जरूर दिया जाए।
  2. अंग्रेजी के अलावा, उन्हें अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए प्रेरित किया जाए।
  3. कौन-सी भाषा सीखनी है, यह पूरी तरह व्यक्ति की पसंद पर छोड़ा जाए।

क्यों जरूरी है?

  1. जब कोई व्यक्ति एक से अधिक भाषा सीखता है, तो उसकी सोचने और समझने की क्षमता बढ़ती है।
  2. भाषाओं के बीच संवाद बढ़ता है, जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान मजबूत होता है।
  3. यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है, क्योंकि लोग अलग-अलग राज्यों के लोगों के साथ बेहतर संवाद कर सकते हैं।

समाज को कौन दिशा देता है?

आज एक बड़ा सवाल यह भी है कि समाज की दिशा कौन तय कर रहा है? क्या वे लोग जो गहरे अध्ययन और शोध के बाद अपनी बात रखते हैं, या वे जो बिना किसी ठोस ज्ञान के सिर्फ भावनाएं भड़काने में माहिर हैं?

समस्या यह है कि आज के दौर में तथ्यों की तुलना में भावनाएं ज्यादा तेजी से फैलती हैं। सोशल मीडिया और टीवी डिबेट्स में वही लोग सबसे ज्यादा छाए रहते हैं जिनके पास ठोस तर्कों की कमी होती है लेकिन जो उत्तेजक बयान दे सकते हैं। जबकि जो लोग किसी विषय पर गहरी समझ रखते हैं, वे अक्सर इस कोलाहल में दबकर रह जाते हैं।

यही कारण है कि भाषा जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी सही विशेषज्ञों की जगह वे लोग चर्चा में आ जाते हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य समाज को विभाजित करना है।

निष्कर्ष

भाषा का उद्देश्य लोगों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं। अगर भाषा को संकीर्ण दायरे में बांधा जाएगा, तो वह कमजोर होगी। हमें भाषा का उपयोग सशक्तिकरण के लिए करना चाहिए, न कि बहिष्कार के लिए।

यह समय आत्ममंथन का है—हमारी भाषाएं क्या सच में मजबूत हो रही हैं, या हम उन्हें अपने संकीर्ण स्वार्थ के कारण कमजोर कर रहे हैं? हमें यह तय करना होगा कि भाषा हमारी शक्ति बनेगी या बंटवारे का माध्यम।

और सबसे महत्वपूर्ण बात—क्या हमें समाज के गंभीर मुद्दों की दिशा तय करने का हक सिर्फ उन्हीं लोगों को देना चाहिए जो बिना किसी गहरी समझ के सिर्फ भावनाएं भड़का सकते हैं? अगर हमने सही रास्ता नहीं चुना, तो अंततः भाषा ही इस लड़ाई में हार जाएगी, और साथ ही हमारी सामाजिक एकता भी।

समाधान स्पष्ट है—भाषा को राजनीति का औजार बनाने के बजाय उसे समृद्धि और आपसी समझ का माध्यम बनाना होगा।

Tuesday, April 1, 2025

नागरिक से समर्थक बनने की प्रक्रिया: एक चिंतन

नागरिक से समर्थक बनने की प्रक्रिया: एक चिंतन

समर्थक बनना एक प्रक्रिया है। यह अचानक नहीं होता। यह धीरे-धीरे, एक अदृश्य धागे की तरह बुनता जाता है। पहले हम बस एक दर्शक होते हैं—चुपचाप देखते हैं, सुनते हैं, महसूस करते हैं। फिर, जब कुछ हमारे मन को छूता है, हम प्रशंसक बनते हैं। और फिर, किसी दिन, बिना यह जाने कि हम कब इस सीमा को पार कर गए, हम समर्थक बन जाते हैं। लेकिन क्या यह परिवर्तन स्वाभाविक है? या यह किसी रणनीति, किसी बड़े खेल का हिस्सा है?

दर्शक: भीड़ का एक चेहरा

दर्शक होना आसान है। तमाशा देखना, मज़ा लेना, कभी-कभी ताली बजाना और फिर अपने जीवन में लौट जाना। यह भूमिका हर किसी को सहज लगती है। कोई बड़ा दायित्व नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं। लेकिन हर दर्शक के भीतर एक संभावना होती है—या तो वह उदासीन बना रहेगा, या फिर धीरे-धीरे किसी ओर झुक जाएगा।

प्रशंसक: ताली से तालमेल तक

जब कोई चीज़ हमें लगातार प्रभावित करती है, तब हम दर्शक से प्रशंसक बनते हैं। यह खेल हो सकता है, कोई कलाकार, कोई विचारधारा या कोई व्यक्ति। हम उसकी प्रशंसा करने लगते हैं, उसके बारे में बातें करने लगते हैं, दूसरों को उसकी अच्छाइयाँ बताने लगते हैं। लेकिन यहाँ भी दूरी बनी रहती है। यह अभी भी व्यक्तिगत पसंद की सीमा में है।

समर्थक: निष्ठा और अंधभक्ति के बीच का धुंधलका

प्रशंसक से समर्थक बनने का सफर सबसे महत्वपूर्ण है। यहाँ तर्क कमजोर पड़ने लगते हैं, भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं। एक समर्थक सिर्फ प्रशंसा नहीं करता, वह बचाव भी करता है। वह तर्क नहीं देखता, वह बस मानता है। धीरे-धीरे, उसकी पहचान उसी चीज़ से बंध जाती है। अब वह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा का हिस्सा बन चुका होता है।

कैसे होता है यह परिवर्तन?

1. लगातार दोहराव: जब कोई विचार, कोई चेहरा, कोई संदेश हमें बार-बार दिखाया जाता है, तो वह हमारे दिमाग में जगह बना लेता है।

2. भावनात्मक जुड़ाव: जब कोई चीज़ हमारी भावनाओं को झकझोरती है—गौरव, गुस्सा, दुःख, आशा—तब हम उससे जुड़ने लगते हैं।

3. समूह मनोविज्ञान: जब हमें लगता है कि बहुत सारे लोग किसी चीज़ को सही मान रहे हैं, तो हम भी उसमें विश्वास करने लगते हैं। भीड़ के साथ चलना आसान होता है।

4. व्यक्तिगत निवेश: जब हम किसी विचार या व्यक्ति का समर्थन करने में अपना समय, पैसा या प्रतिष्ठा लगा देते हैं, तो फिर उससे पीछे हटना मुश्किल हो जाता है।

यह चिंता क्यों पैदा करता है?

समर्थक बनने में कोई बुराई नहीं, जब तक कि वह विवेक के साथ हो। लेकिन जब समर्थन अंधभक्ति बन जाता है, तब समस्या शुरू होती है। अब सवाल उठाने वाले दुश्मन लगने लगते हैं, आलोचना असहनीय हो जाती है। एक समर्थक अक्सर अपने तर्क को छोड़कर सिर्फ भावना पर चलता है। और यहीं पर खतरा है।

समाज में बदलाव लाने वाले हमेशा समर्थक ही होते हैं—लेकिन सवाल यह है कि वे किसके समर्थक हैं? विचारों के, सुधार के, तर्क के? या किसी व्यक्ति, किसी ब्रांड, किसी जुमले के?

हमारे लिए ज़रूरी यह नहीं कि हम समर्थक बनें या नहीं, बल्कि यह कि हम किस चीज़ के समर्थक बन रहे हैं और क्यों।

Sunday, June 7, 2020

केरला का शिक्षित होना और राजनीति


कुछ दिनों पहले केरल मे कुछ उपद्रहियों ने एक गर्भवती हथिनी को फल के साथ बारूद खिला कर के मार डाला । ये बहुत ही निंदनीय है। पर जैसा होते आया है, देश मे गुस्से का माहौल है। बड़े बड़े औहदों पर बैठे लोग अपना गुस्सा अपने अपने सोशल मीडिया एकाउंट के जरिये जाहिर कर रहे है। पर अचानक से एक नया ट्रेंड चल निकला अपना गुस्सा दिखाने का, सोशल मीडिया पर लोग केरल के लोगों को उनके शिक्षित होने को ले कर ट्रोल कर रहे है।पहले सुनकर बड़ा अजीब लगा। फिर देखा पढ़े लिखे लोग भी ऐसे ट्रोल कर रहे हैं । फिर मेरा माथा थोड़ा ठनका। कही यहाँ भी तो राजनीति नही हो रही है। कैसे देश के सबसे अनपढ़ राज्यों मे से कुछ राज्यों के लोग सबसे शिक्षित राज्य के लोगों को उनके शिक्षित होने को लेकर ताना मार रहे है। कभी सोचा था आपने की शिक्षित होना भी आपको गाली की तरह सुनने को मिलेगा। हाथी को मारने को कही से भी सही नही ठहराया जा सकता है। पर किसी हाथी को मारने के लिए सारे राज्य के पढ़े लिखे लोगों को जिम्मेदार कैसे माना जा सकता है। कोई तो तर्क होगा । 

 बात को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। एक महाराष्ट्र के नेता है नाम है राज ठाकरे , उनकी सारी की सारी राजनीति उत्तर भारतीओं को महाराष्ट्र से भगाने के इर्द गिर्द घूमती है। उनका भी यही कहना है की उत्तर भारतीय, महाराष्ट्र मे आ कर अपराध करते है और यहाँ के लोगों की नौकरियाँ छिन ले रहे हैं। पर महाराष्ट्र के लोग जानते है की उत्तर भारतीय बहुत मेहनती होते है और इसी कारण से राज ठाकरे की राजनीति अब तक नही चमक पायी है। पर राज ठाकरे की ये बात उत्तर भारतीयों या किसी भी पढ़े लिखे और सच्चे भारतीय को अच्छी नही लगती है। पर ऐसा भी नही है की एक भी उत्तर भारतीय महाराष्ट्र मे जाकर अपराध नही किये होंगे। आपको लग रहा होगा की मै केरल की बात करते करते महाराष्ट्र कहा चला गया। बस आपको संझाने के लिए ये सारा सार बताना पड़ा। वापस से केरल पर आते हैं, कुछ जाहिल लोगों की गलतियों को सारे समाज के मत्थे कैसे मढ़ा जा सकता है। अगर इस तर्क को सही मानने लगेंगे तो राज ठाकरे को भी सही मानिए। अगर इस तर्क को भी सही ठहराना चाहें तो इसी तर्क पर हिमाचल प्रदेश मे २ दिन पहले एक गाय को मारने की कोशिश की गयी है तो क्या सारे हिमाचली लोगों को गाय का विरोधी मान कर उनको भी ट्रोल किया जाए ( इस खबर की प्रामाणिकता की पुष्टि मै नही करता हूँ) । 

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना है की ये भी एक प्रकार का रेसिस्ट होना ही है। किसी भी घटना को पूरे समाज, जाति, धर्म, रंग, शहर, प्रदेश, देश से जोड़ देना कहाँ तक सही है। यहाँ भी राजनीति ही है एक दूसरे को एक दूसरे से अलग करने की। जब तक हम अलग अलग है किसी न किसी की राजनीति चलती रहेगी। तो किसी भी घटना के लिए पूरे शहर, समाज या देश को आरोपी बनाना बंद करिए। 


गौरव पांडेय

Wednesday, June 3, 2020

वेब सीरीज और मूवीज का विरोध फैशन या राजनीति

आजकल का नया फैशन है , जब भी कोई नई वेब सीरीज या कोई नई मूवीज रिलीज़ होती है । उसके किसी न किसी पात्र, घटना को पूरे समाज  या वर्ग से जोड़ दिया जाता है। फिर उस पात्र को उस पूरे समाज या वर्ग का प्रतिनिधि मान कर उस पूरे समाज या वर्ग की भावना को ठेश पहुँच जाती है। जिन्हे  ठेश नही पहुँचती है उन्हें सोशल मीडिया के भ्रामक पोस्टो के माध्यम से बरगलाया जाता है। फिर उसका असर ये होता है की वो बचे हुए लोगों की भावनाओं को भी ठेश पहुँचने का आभास होता है। फिर सारे लोग उस समाज के ठेकेदार बन जाते हैं और उस वेब सीरीज या मूवीज के कलाकारों, निर्माता, निर्देशक (जिसको गरियाने से उनको या उनकी राजनीति को फायदा होता हो) को bycott करते है। 

मै इतना ही कहना चाह रहा हूँ  कि अगर आप इतना ही संवेदनशील है और आपकी भावना को हर एक बात से ठेश पहुँच जाती है। तो एक अच्छे समाज को बनाने मे अपना योगदान दे। समाज मे जो इतने सारे अपराध हो रहे है या इतनी सारी असंवेदनशील घटनाएं हो रही है वो भी इसी समाज के लोगों द्वारा इस समाज के लोगों पर ही हो रही है और वो भी किसी न किसी समाज या वर्ग से ही तालुख् रखते हैं। उस समय वो समाज के लोग या वर्ग के लोग आ कर क्यो नही कहते की  मेरे समाज या वर्ग के इस आदमी ने ये  असंवेदनशील काम किया है और उसके इस काम से हम शर्मिंदा है और मेरे पूरे समाज की भावना को ठेश पहुँची है। 

कोई भी वेब सीरीज या मूवीज समाज के पात्रों से ही गढ़ी जाती है। अपनी भावनाओं को सम्हाल कर रखिये वरना कोई आपकी भावनाओं का फायदा उठाता रहेगा और अपनी राजनैतिक रोटिया सेकता रहेगा। 

वेब सीरीज या मूवीज मनोरंजन के लिए बनाई जाती है। आनंद उठाइये मोहरे न बनिये। 

गौरव पांडेय

Wednesday, April 29, 2020

मेरे दिमाग़ से जीने-मरने का हिसाब निकल गया है: इरफ़ान ख़ान( ये मार्मिक चिट्ठी उन्होंने लंदन से ही अपने मित्र और पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज को भेजी थी)

मेरे दिमाग़ से जीने-मरने का हिसाब निकल गया है: इरफ़ान ख़ान

कुछ महीने पहले अचानक मुझे पता चला था कि मैं न्यूरोएन्डोक्राइन कैंसर से ग्रस्त हूं, मैंने पहली बार यह शब्द सुना था.

खोजने पर मैंने पाया कि मेरी इस बीमारी पर बहुत ज़्यादा शोध नहीं हुए हैं, क्योंकि यह एक अजीब शारीरिक अवस्था का नाम है और इस वजह से इसके उपचार की अनिश्चितता ज़्यादा है.

अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था. मेरे साथ मेरी योजनायें, आकांक्षाएं, सपने और मंज़िलें थीं.

मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, "आप का स्टेशन आ रहा है, प्लीज़ उतर जाएं.'
मेरी समझ में नहीं आया, "ना ना मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है.'
जवाब मिला, ''अगले किसी भी स्टाप पर आपको उतरना होगा, आपका गन्तव्य आ गया.''

अचानक एहसास होता है कि आप किसी ढक्कन (कॉर्क) की तरह अनजान सागर में, अप्रत्याशित लहरों पर बह रहे हैं... लहरों को क़ाबू कर लेने की ग़लतफ़हमी लिए.
इस हड़बोंग, सहम और डर में घबरा कर मैं अपने बेटे से कहता हूं, "आज की इस हालत में मैं केवल इतना ही चाहता हूं... मैं इस मानसिक स्थिति को हड़बड़ाहट, डर, बदहवासी की हालत में नहीं जीना चाहता. मुझे किसी भी सूरत में मेरे पैर चाहिए, जिन पर खड़ा होकर अपनी हालत को तटस्थ हो कर जी पाऊं. मैं खड़ा होना चाहता हूं."

ऐसी मेरी मंशा थी, मेरा इरादा था...

कुछ हफ़्तों के बाद मैं एक अस्पताल में भर्ती हो गया. बेइंतहा दर्द हो रहा है. यह तो मालूम था कि दर्द होगा, लेकिन ऐसा दर्द... अब दर्द की तीव्रता समझ में आ रही है.

कुछ भी काम नहीं कर रहा है. ना कोई सांत्वना, ना कोई दिलासा. पूरी कायनात उस दर्द के पल में सिमट आई थी. दर्द ख़ुदा से भी बड़ा और विशाल महसूस हुआ.

मैं जिस अस्पताल में भर्ती हूं, उसमें बालकनी भी है. बाहर का नज़ारा दिखता है. कोमा वॉर्ड ठीक मेरे ऊपर है. सड़क की एक तरफ मेरा अस्पताल है और दूसरी तरफ लॉर्ड्स स्टेडियम है... वहां विवियन रिचर्ड्स का मुस्कुराता पोस्टर है. मेरे बचपन के ख्वाबों का मक्का, उसे देखने पर पहली नज़र में मुझे कोई एहसास ही नहीं हुआ. मानो वह दुनिया कभी मेरी थी ही नहीं.

मैं दर्द की गिरफ्त में हूं.
और फिर एक दिन यह एहसास हुआ... जैसे मैं किसी ऐसी चीज़ का हिस्सा नहीं हूं, जो निश्चित होने का दावा करे. ना अस्पताल और ना स्टेडियम. मेरे अंदर जो शेष था, वह वास्तव में कायनात की असीम शक्ति और बुद्धि का प्रभाव था. मेरे अस्पताल का वहां होना था. मन ने कहा. केवल अनिश्चितता ही निश्चित है.

इस एहसास ने मुझे समर्पण और भरोसे के लिए तैयार किया. अब चाहे जो भी नतीजा हो, यह चाहे जहां ले जाए, आज से आठ महीनों के बाद, या आज से चार महीनों के बाद या फिर दो साल. चिंता दरकिनार हुई और फिर विलीन होने लगी और फिर मेरे दिमाग़ से जीने-मरने का हिसाब निकल गया.

पहली बार मुझे शब्द 'आज़ादी' का एहसास हुआ, सही अर्थ में! एक उपलब्धि का एहसास.

इस कायनात की करनी में मेरा विश्वास ही पूर्ण सत्य बन गया. उसके बाद लगा कि वह विश्वास मेरी एक एक कोशिका में पैठ गया. वक़्त ही बताएगा कि वह ठहरता है या नहीं. फ़िलहाल मैं यही महसूस कर रहा हूं.

इस सफ़र में सारी दुनिया के लोग... सभी मेरे सेहतमंद होने की दुआ कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मैं जिन्हें जानता हूं और जिन्हें नहीं जानता, वे सभी अलग-अलग जगहों और टाइम ज़ोन से मेरे लिए प्रार्थना कर रहे हैं. मुझे लगता है कि उनकी प्रार्थनाएं मिल कर एक हो गई हैं, एक बड़ी शक्ति. तीव्र जीवन धारा बन कर मेरे स्पाइन से मुझमें प्रवेश कर सिर के ऊपर कपाल से अंकुरित हो रही हैं.

अंकुरित होकर यह कभी कली, कभी पत्ती, कभी टहनी और कभी शाखा बन जाती है. मैं खुश होकर इन्हें देखता हूं. लोगों की सामूहिक प्रार्थना से उपजी हर टहनी, हर पत्ती, हर फूल मुझे एक नई दुनिया दिखाती है. एहसास होता है कि ज़रूरी नहीं कि लहरों पर ढक्कन (कॉर्क) का नियंत्रण हो.

जैसे आप क़ुदरत के पालने में झूल रहे हों!

(अभिनेता इरफ़ान ख़ान जब बीमार थे और लंदन के एक अस्पताल में इलाज करवा रहे थे. ये मार्मिक चिट्ठी उन्होंने लंदन से ही अपने मित्र और पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज को भेजी थी.)